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suresh patidar sithal
दर्शनीय स्थल
जिले के विभिन्न हिस्सों में धार्मिक, ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक महत्व के अनेक दर्शनीय स्थल हैं। पुरातन और आधुनिक स्थलों के विकास के परिणामस्वरूप डूँगरपुर जिले में पर्यटन विकास की व्यापक संभावनाओं पर बल दिया जा रहा है।
बडौदा
जिला मुख्यालय से ४१ किलोमीटर दूर आसपुर तहसील अन्तर्गत वागड प्रदेश की राजधानी रहा वटपद्रक (बडौदा) ऐतिहासिक क्षेत्र है। यहाँ शैव, वैष्णव एवं जैन मूर्तिकला, मन्दिर स्थापत्य वैशिष्ट्य एवं नैसर्गिक सौन्दर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। यह गांव प्राचीन राजपूत वास्तुकला के अवशेषों के लिए प्रसिद्व है। यहां सरोवर के समीप प्राचीन शिवालय है जिसकी नक्काशी सुन्दर है। यहीं जलकुण्ड पर प्राचीन शिलालेख है जिससे इस क्षेत्र की प्राचीनता का बोध होता है। यहीं शिव, विष्णु, कुबेर, सूर्य आदि की मूर्तियां हैं। इनकी चरण चौकी पर ग्यारहवीं शताब्दी का लेख मिला है।
इस गांव में दो जैन मंदिर और भी बने हुए हैं इनमें प्रतिष्ठित मूर्तियां आकर्षक हैं।
बेणेश्वर
डूँगरपुर जिला मुख्यालय से साठ किलोमीटर दूर आसपुर पंचायत समिति अन्तर्गत माही एवं सेाम नदी के संगम स्थल पर बेणेश्वर टापू समूचे वाग्वर अंचल का प्रमुख श्रद्धा धाम है। यहां हर वर्ष माघ शुक्ल ग्यारस से माघ कृष्ण पंचमी (अमान्त पद्धति के अनुसार) तक विशाल मेला भरता है जिसमें वागड अंचल सहित राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों से पांच-सात लाख मेलार्थी हिस्सा लेते हैं। इसे ’वागड का कुम्भ‘ कहा जाता है।
बेणेश्वर डूँगरपुर जिला मुख्यालय से ६५ किलोमीटर, आसपुर से २२ किलोमीटर, बाँसवाडा से ५३ किलोमीटर व उदयपुर से १२३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान पर जाने के लिए सबसे निकट बस स्टैण्ड साबला ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
इस मेले में आदिवासी संस्कृति का दिग्दर्शन सहज ही होता है। मेलार्थी यहां पवित्र स्नान के अलावा अपने मृत परिजनों की अस्थियों का संगम जल में विसर्जन करते हैं। मान्यता है कि इससे मुक्ति मिलती है। आदिवासियों के लिए बेणेश्वर हरिद्वार, प्रयाग अथवा काशी की तरह है।
टापू पर राधा-कृष्ण मन्दिर, बेणेश्वर शिवालय, ब्रह्मा, वाल्मीकि आदि मन्दिर, राजा बलि की पावन यज्ञ स्थली, अथाह गहराई वाला आबूदर्रा जलतीर्थ आदि दर्शनीय हैं।
हरि मन्दिर साबला
जन-जन के श्रद्धा केन्द्र संत मावजी के लाखों अनुयायियों/भक्तों की आस्था का केन्द्र हरि मन्दिर उदयपुर-बाँसवाडा मुख्य मार्ग पर साबला गांव में है। यहां भगवान निष्कलंक की मूर्ति है। साबला संत मावजी महाराज की जन्म स्थली है। हरि मन्दिर में मावजी रचित महत्वपूर्ण ग्रंथ(चोपडा) रखा है। संत मावजी समाज सुधारक थे जिनकी सामाजिक सुधार की चेतना धाराएं आज भी प्रवाहित होकर नवजीवन का संदेश दे रही हैं।
देव सोमनाथ
डूँगरपुर से उत्तर-पूर्व में १५ किलोमीटर दूर सोम नदी के मुहाने अवस्थित देव सोमनाथ मन्दिर किसी चमत्कार से कम नहीं है। विशुद्ध रूप से पाषाणों से बना यह प्राचीन मन्दिर स्थापत्य की दृष्टि से न केवल हिन्दुस्तान बल्कि विश्व भर में बेजोड है।
प्राचीन देव गांव में सोम नदी के तट पर होने से यह देव सेामनाथ के रूप में प्रसिद्ध है। माना जाता है कि देव सोमनाथ शिवालय का निर्माण राजा अमृतपाल देव के समय १२ वीं शताब्दी में हुआ। तिमंजिला यह भव्य देवालय १५० स्तम्भों पर खडा है। हरेक स्तम्भ कलापूर्ण है और विविध तक्षण शैलियों को प्रकट करता है। सभा मण्डप के अलंकृत तोरणों में से अधिकांश टूट गए हैं। कई खम्भों पर अस्पष्ट शिलालेख हैं।
देव सोमनाथ की निर्माण शैली अन्यतम है। इसकी विशेषता इस अर्थ में है कि तिमंजिले इस मन्दिर में कहीं भी चूना, रेत, सीमेंट आदि किसी भी योजक सामग्री का प्रयोग नहीं किया गया है। इसमें पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण तीनों तरफ प्रवेश द्वार हैं। भव्य देवालय में गवाक्ष(गोखडे), नर्तकियों की प्रतिमाएं, विविध मूर्तियां, मेहराब, तोरण आदि देखने लायक हैं। गर्भ गृह अपने नाम को सार्थक करता हुआ सभा मण्डप की सतह से काफी नीचे है और सीढयों से उतर कर इसमें प्रवेश किया जाता है। निज मन्दिर में श्वेत पाषाण की जलाधारी के मध्य कृष्ण पाषाण का शिवलिंग है। अन्य कलात्मक मूर्तियां भी हैं। गर्भ गृह का प्रवेश द्वार शिल्प एवं सूक्ष्म मूर्तिकला का अप्रतिम उदाहरण है।
शिवालय के पृष्ठ भाग में विशाल कुण्ड है जिसे प्रस्तरों की एक नाली गर्भ गृह से जोडती है। यहीं हनुमान मूर्ति भी है।
शिल्प, श्रद्धा और आस्था की त्रिवेणी बहा रहा दूर-दूर तक प्रसिद्ध देव सोमनाथ मन्दिर इतिहास की जाने कितनी घटनाओं का साक्षी रहा है। इस मन्दिर के कला वैभव ने कई बार विधर्मियों की क्रूर दृष्टियों को झेला, इतना ही नहीं उफनती सोम नदी के भयंकर जल प्लावन ने इसे क्षति पहुंचायी। बावजूद इन सभी के देव सोमनाथ का अविचल खडा मन्दिर सदियों से लोक श्रद्धा का ज्वार उमडाता रहा है। स्थापत्य कला की यह अनुपम धरोहर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है।
चुण्डावाडा महल
राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक ८ पर बिछीवाडा के पास ऊँची पहाडी पर तालाब के किनारे बना चुण्डावाडा महल अपनी सुकूनदायक स्थिति एवं बनावट से हर किसी पर्यटक का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच ही लेता है। यहां बरामदे, झरोखे, द्वार एवं वास्तु शास्त्र के हिसाब से बने सुसज्जित कक्ष देखने लायक हैं। सैर-सपाटे और पिकनिक के लिए यह उपयुक्त स्थल है।
आमझरा
बिछीवाडा एवं खेरवाडा के बीच आमझरा गांव से पश्चिम में पहाडियों के बीच पुरातात्विक महत्व का स्थल है। अनुमान है कि प्राचीन काल में यहां बहुत बडा नगर रहा होगा। यहां गुप्तकालीन संस्कृति के महत्वपूर्ण अवशेष पाए गए हैं। आज भी खुदाई करने पर यहां बडे आकार की पक्की ईंटे नजर आती हैं। ५वीं-६ठी शताब्दी की मूर्तियां एवं अवशेष यहां से मिले हैं। आमझरा के गांव की पश्चिमी उन्नत उपत्यकाओं के मध्य प्रवाहमान नाले के किनारे एक टापरे में सिंहारूढ महिषासुरमर्दिनी देवी की पुरानी मूर्ति है, इसे स्थानीय लोग ’करहर माता‘ के नाम से पूजते हैं। यहीं गजलक्ष्मी की दुर्लभ मूर्ति तथा अन्य मूर्तियां भी हैं जो अत्यधिक प्राचीन महत्व की हैं। यहां उत्खनन से प्राप्त प्रतिमाओं में गणपति, वीणाधर, शिव, गजलक्ष्मी, कुबेर, पद्मपाणी महत्वपूर्ण हैं।
नागफणजी
मोदर के पास पर्वतीय क्षेत्र में स्थित नागफणजी प्राकृतिक सौन्दर्य, श्रद्धा एवं पर्यटन का धाम है। यहां पहाड से निरन्तर पानी रिसता रहता है। मुख्य मन्दिर में नागफणी पार्श्वनाथ, पद्मावती देवी एवं धरणेन्द्र की समन्वित मूर्ति लोक श्रद्धा का केन्द्र है। पास ही शिव मन्दिर है। बरसात में यहां का मोहक वातावरण हर किसी को असीम आत्मतोष प्रदान करता है।
गलियाकोट
माही नदी के किनारे-किनारे स्थित गलियाकोट ऐतिहासिक महत्व का स्थल है। पीर फखरुद्दीन की दरगाह, शीतला माता मन्दिर, जैन देवालय, दुर्ग आदि अपने अंक में लिए गलियाकोट विश्वविख्यात है जहां साम्प्रदायिक सौहार्द एवं समन्वय की धाराएं इसकी गौरवगाथा को अच्छी तरह अभिव्यक्त करती हैं। यह परमार वंश के राजाओं की जागीर रही है।
माही और महिया नाला के संगम पर बना विस्तृत प्राचीन दुर्ग प्रसिद्ध है। हालांकि यह दुर्ग खण्डहर हो चुका है तथापि अवशेष बताते हैं कि इस दुर्ग का निर्माण योजनाबद्ध रूप से निष्णात कारीगरों ने किया। यहीं प्राचीन मन्दिर भी हैं। दुर्ग से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के पुरावशेष भी प्राप्त हुए हैं।
गलियाकोट की इस दरगाह में हर वर्ष सैयद फखरूद्वीन की याद में २७ वें मुहर्रम पर उर्स का आयोजन होता है।
गलियाकोट दरगाह लगभग ९०० वर्ष पूर्व सैयद फखरुद्दीन शहीद की स्मृति में बनाई गई। यहां संगमरमर से बनी दरगाह (मजार), श्याम पाषाणों से निर्मित नूर मस्जद, मजार की दीवारों पर उत्कीर्ण वाक्य, सुन्दर बेलबूटों से अलंकृत गुम्बद का भीतरी हिस्सा सौन्दर्यपूर्ण स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मजार पर स्वर्णाक्षरों में कुरान की आयतें अंकित हैं। मजार के गुम्बद पर स्वर्ण कलश है। विश्व के कोने-कोने से यात्री यहां आकर मन्नतें मांगते हैं। गलियाकोट में १५-१६वीं शताब्दी के भव्य जैन मन्दिर स्थापत्य की दृष्टि से खास हैं। इनकी मूर्तियां चित्ताकर्षक हैं। कस्बे में शीतला माता का प्राचीन मन्दिर शाक्त साधना का केन्द्र रहा है। इस मन्दिर में श्रद्धालुओं का जमघट लगा ही रहता है। पास ही १२ वीं शताब्दी के पहले का सोमनाथ महादेव मन्दिर है जिसकी कलात्मकता देखने लायक है। कडाणा बांध के जलभराव क्षेत्र में आए इन तीर्थों को सुरक्षित रखने धार्मिक स्थलों के चारों ओर सरकार ने रिंगवाल बनाई है।
बोरेश्वर
अरावली की हरित उपत्यका में माही नदी के किनारे सघन वनश्री के मध्य बोरेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर धार्मिक आस्थाओं एवं नैसर्गिक रमणीयता का पूंजीभूत रूप है। कण्व ऋषि सहित अनेक सिद्धों-मुनियों की तपस्या स्थली रहा बोरेश्वर श्रद्धालुओं एवं प्रकृतिप्रेमियों को भीतर तक आह्लादित करते हुए अजीब सी शान्ति का अहसास कराता है। यहां पौराणिक मान्यता वाले कुण्ड एवं गुफा इत्यादि हैं। यहां के ऊँचे वृक्ष प्रसिद्ध हैं। बोरेश्वर मन्दिर का जीर्णोद्धार विक्रम संवत १२३६ में महारावल सामन्तसिंह के शासनकाल में हुआ।
अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर इस रमणीय स्थल पर प्रतिवर्ष वैशाखी पूर्णिमा को शिवालय पर जुडने वाले मेले में डूंगरपुर, बांसवाडा, उदयपुर व चित्तौडगढ जिलों सहित गुजरात एवं मध्यप्रदेश के हजारों श्रृद्धालु भाग लेते हैं।
रघुनाथजी
सागवाडा से आठ किलोमीटर दूर बांसवाडा मार्ग स्थित भीलूडा गांव में नाले के किनारे श्री रघुनाथजी का विशाल एवं प्राचीन मन्दिर है। इसमें श्याम चमकीले पाषाण की भगवान राम की दिव्य आभायुक्त मूर्ति है। दांयी ओर लक्ष्मण व बांयी ओर सीता की मूर्ति है। यह मन्दिर अत्यन्त प्रसिद्ध है।
नादिया गांव में भी भगवान रघुनाथजी का पुराना एवं प्रसिद्ध मन्दिर है। यहां रामनवमी पर मेला लगता है। इसे भवइयों का मेला कहा जाता है जहां भवइयों का नृत्य देखने लायक है।
गवरीश्वर
दीवडा छोटा गांव के पास मोरन नदी की जलधाराओं के बीच में शिला पर धवल शिवलिंग है। नदी के पास बडा शिवालय है।
आशापुरा
निठाउवा से कुछ दूर माँ आशापुरा का भव्य मन्दिर प्रसिद्ध देवी धाम है जहां श्रद्धालुओं का तांता लगा ही रहता है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यहां देवी भक्तों का मेला-सा भर आता है।
विजवा माता
आसपुर क्षेत्र के मोदपुर के समीप विंध्यवासिनी देवी का मन्दिर आरोग्यदाता धाम के रूप में दूर-दूर तक विख्यात है। मन्दिर के गर्भ गृह में विंध्यवासिनी देवी की ओजपूर्ण मूर्ति है जिसे भक्तजन विजवा माता के नाम से पूजते हैं। यहां १३वीं शताब्दी का शिलालेख मिला है। हर रविवार को यहां मेला लगता है।
क्षीरेश्वर
खडगदा गांव से पांच किमी दूर मोरन नदी के समीप नैसर्गिक सौन्दर्य के बीच क्षीरेश्वर अध्यात्म एवं सामाजिक सद्भाव के प्रसार का केन्द्र रहा है। यहां प्राचीन धूंणी, शिवालय आदि हैं। वान्दरवेड के पास माही एवं मोरन के संगम पर नीलकण्ठ मन्दिर एवं निरंजनी अखाडा प्रमुख स्थल हैं।
क्षेत्रपाल तीर्थ
खडगदा में मोरन नदी के मुहाने र्स्थत क्षेत्रपाल मन्दिर वागड का आधुनिक तीर्थ है। मनोरम परिवेश, सुन्दर उद्यान, धर्मशाला एवं देवालयों की वजह से यह पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो रहा है। मुख्य मन्दिर में क्षेत्रपाल भैरव की चतुर्भुज मूर्ति है जिसके प्रति जन-जन में अगाध आस्था रही है। यहां जैन मन्दिर एवं शिवालय भी है।
सिद्धनाथ
डूँगरपुर-सागवाडा मार्ग पर एक किमी अन्तरंग बसे ठाकरडा गांव में गोमती नदी के किनारे टीले पर सिद्धनाथ महादेव का भव्य एवं प्राचीन मन्दिर है। इसमें स्वयंभू शिवालय के साथ ही अन्य देव प्रतिमाएं हैं। इसकी ख्याति दूर-दूर तक है।
भुवनेश्वर
जिला मुख्यालय से ९-१० किलोमीटर की दूरी पर बिछीवाडा सडक मार्ग पर भुवनेश्वर शिव मंदिर स्थित है। यह मंदिर सैकडों दर्शनार्थियों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
डूँगरपुर-अहमदाबाद मार्ग पर सुरम्य पहाडी की गोद में अवस्थित यह शिवालय निरन्तर विकास की ओर अग्रसर है। इसमें स्वयंभू शिवलिंग है जिसके प्रति लोगों की अपार आस्थाएं हैं। इसी पहाडी के शीर्ष पर प्राचीन मठ-मन्दिर है।
वसुन्दर
जिला मुख्यालय से ४५ किमी दूर पूर्व में वसुन्दर गांव के समीप पहाडों के मध्य खोह में वसुन्दरा(वसुन्धरा) देवी का पुराना मन्दिर है। यहीं एक कुण्ड है जिसमें पर्वत शिलाओं से रिसकर शीतल जल भरता रहता है। वर्षा के मौसम में यहां का दृश्य अत्यन्त मनोरम हो उठता है और वसुन्धरा का हरित श्रृंगार देखते ही बनता है। इस मन्दिर का निर्माण ई. सन् ६६१ में मेवाड के राजा अपराजित द्वारा होना बताते हैं। इसका जीर्णोद्धार महाराजा भीमसिंह देव सोलंकी ने करवाया। रियासतकाल में यह प्रमुख शिकारगाह रहा है।
पुंजपुर

डूँगरपुर-आसपुर मार्ग स्थित पुंजपुर गांव १६वीं शताब्दी में महारावल पूंजाजी ने बसाया। उनका बनाया सरोवर, शिवालय एवं हींगलाज माता का मन्दिर प्रमुख है।

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