|| अमरता का अनुभव ||
मनुष्यमात्र के भीतर स्वा भाविक ही एक ज्ञान अर्थात विवेक है | साधक का काम उस विवेक को महत्त्व देना है | वह विवेक पैदा नहीं होता |अगर वह पैदा होता तो नष्ट भी हो जाता | क्योंकि पैदा होनेवाली हरेक चीज नष्ट होनेवाली होती है - यह नियम है | अत: विवेक की उत्पत्ति नहीं होती , प्रत्युत जागृति होती है | जब साधक अपने भीतर उस स्वत: सिद्ध विवेक को महत्त्व देता है , तब वह विवेक जागृत हो जाता है | इसीको तत्त्वज्ञान अथवा बोध कहा जाता है | इसको समझने के लिए संतलोग एक उदाहरण देते हैं | जैसे बिजली का बल्ब सही अवस्था में लगा हुआ है , पर इसमें प्रकाश नहीं है | इसे बुद्धि समझ सकते हैं | इस पर अज्ञानरुपी अँधेरे का पर्दा पड़ा हुआ है | जब इसमें खटका [ स्विच ] चालू किया जाता है तो प्रकाश प्रकट होता है | यही विवेक का जाग्रत होना है | अर्थात बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश होते ही सत - असत , धर्म - अधर्म , कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य का सही - सही ज्ञान हो जाता है |
प्रत्येक प्राणी की यह इच्छा रहती है की मैं जीवित रहूँ , कभी मरूं नहीं | वह अमर रहना चाहता है | अमरता की इस इच्छा से सिद्ध होता है की वास्तव में वह अमर है | अगर वह अमर न होता तो उसमें अमरता की इच्छा भी नहीं होती | यहाँ शंका हो सकती है की जो अमर है , उसमें अमरता की इच्छा क्यों होती है ? इसका समाधान यह है की अमर होते हुए भी जब उसने अपने विवेक का तिरस्कार करके मरणधर्मा शरीर के साथ अपने को एक मान लिया अर्थात ' शरीर ही मैं हूँ ' - ऐसा मान लिया , तब उसमें अमरता की इच्छा और मृत्यु का भय पैदा हो गया | मनुष्यमात्र को इस बात का विवेक है की यह शरीर [ स्थूल , सूक्ष्म तथा कारण ] मेरा असली स्वरूप नहीं है | शरीर प्रत्यक्ष रूप से बदलता है | बाल्यावस्था में जैसा शरीर था , वैसा आज नहीं है और आज जैसा है , वैसा आगे नहीं रहेगा | परन्तु मैं वही हूँ अर्थात बाल्यावस्था में जो मैं था , वही मैं आज हूँ और आगे भी रहूँगा | अत: मैं शरीर से अलग हूँ और शरीर मेरे से अलग है अर्थात मैं शरीर नहीं हूँ - यह सबके अनुभव की बात है | फिर भी अपने को शरीर से अलग न मानकर शरीर के साथ एक मान लेना अपने विवेक का निरादर है , अपमान है , तिरस्कार है | साधक को अपने इस विवेक को महत्त्व देना है कि मैं तो निरंतर रहने वाला हूँ और शरीर मरनेवाला है | ऐसा कोई क्षण नहीं है , जिसमें शरीर मरता न हो | मरने के प्रवाह को ही जीना कहते हैं | वह प्रवाह प्रकट हो जाय तो उसको जन्मना कह देते हैं और अदृश्य हो जाय तो उसको मरना कह देते हैं | तात्पर्य है की जो हरदम बदलता है , उसी का नाम जन्म है , उसी का नाम स्थिति है और उसी का नाम मृत्यु है | बाल्यावस्था मर जाती है तो युवावस्था पैदा हो जाती है और युवावस्था मर जाती है तो वृद्धावस्था पैदा हो जाती है | इस तरह प्रतिक्षण पैदा होने और मरने को ही जीना [ स्थिति ] कहते हैं | पैदा होने और मरने का यह क्रम सूक्ष्म रीति से निरंतर चलता रहता है | परन्तु हम स्वयम निरंतर ज्यों - के - त्यों रहते हैं | अवस्थाओं में परिवर्तन होता है , पर हमारे स्वरूप (आत्मा ) में कभी किंचिंनमात्र भी परिवर्तन नहीं होता | अत: शरीर तो निरंतर मृत्यु में रहता है और मैं निरंतर अमरता में रहता हूँ - इस विवेक को महत्त्व देना है |
इसी आशय का वर्णन गीता [ २ / २२ ; २ / १७ ] में भी किया गया है | जैसे पुराने कपड़ों को छोड़ने से हम मर नहीं जाते और नए कपड़े धारण करने से हम पैदा नहीं हो जाते , वैसे ही पुराने शरीर को छोड़ने से हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करने से हम पैदा नहीं हो जाते | इसलिए हमारे मन में निरंतर स्वत: यह बात रहनी चाहिए की मैं मरनेवाला नहीं हूँ , मैं तो अमर हूँ | अगर इस विवेक को महत्त्व दें तो मरने का भय मिट जाएगा | जब हम मरते ही नहीं तो फिर मरने का भय कैसा ? और जो मरता ही है , उसको रखने की इच्छा कैसी ?
|| इति ||
नवीन नवधा भक्ति
|| नवीन नवधा भक्ति ||
[ १ ] सत्संग --भगवद्भक्तों के दर्शन , चिंतन , स्पर्श तथा उनके वचन सुनने से अति हर्षित होना | [ २ ] कीर्तन -- प्रेम में मग्न होकर हर समय भगवन्नाम का स्मरण तथा प्रेम और प्रभाव के सहित भगवान के गुणों का कथन | [ ३ ] स्मरण -- सारे संसार में भगवान के स्वरूप का चिंतन | [ ४ ] शुभेच्छा -- भगवान के दर्शन की और उनमें प्रेम होने की उत्कट इच्छा | [ ५ ] संतोष -- जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत - आज्ञा से हुआ मानकर आनंद से पतिव्रता स्त्री की भाँती स्वीकार करना | [ ६ ] सेवा -- सब जीवों को परमेश्वर का स्वरूप समझकर निष्काम - भाव से उनकी सेवा और सत्कार करना | [ ७ ] निष्काम कर्म -- शास्त्रोक्त निष्कामभाव से सब कर्मों में ईश्वर के अनुकूल बरतना अर्थात जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें , वही कर्म करना | [ ८ ] उपरामता -- संसार के भोगों से चित्त को हटाना | [ ९ ] सदाचार -- ईश्वर में प्रेम होने के लिए अहिंसा सत्य आदि का पालन करना |
नारदभक्तिसूत्र में कहा है - ईश्वर में परम अनुराग ही भक्ति है | भक्ति मुख्यतया दो प्रकार की मानी गई है -- वैधाभक्ति और पराभक्ति | वैधाभक्ति का फल है पराभक्ति | भागवत में नौ तरह की भक्ति बताई गई है - भगवान के गुण - लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके नाम - रूप आदि का स्मरण , उनके चरणों की सेवा , पूजा , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन | इस नौ प्रकार की भक्ति का फल प्रेमलक्षणा भक्ति है | प्रेम ही भक्ति की अंतिम अवस्था है | भगवान ने गीता [ ११ / ५४ - ५५ ; १० / ९ - ११ ] में भक्ति के लक्षण बताए हैं |
यह नवधा भक्ति संक्षेप से बताई गई है | इनके फलस्वरूप प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है | उस समय भक्त न तो किसी से डरता है , न मनमें दूसरी इच्छा रहती है | " न लाज तीन लोक की न वेद को कह्यो करे | न संक भूत प्रेतकी न देव यक्ष से डरे || सुने न कान औरकी द्रसे न और इच्छना | कहे न मुख और बात प्रेम भक्ति लक्षणा ||" यह प्रेमलक्षणा भक्ति के लक्षण हैं | यह भक्ति प्रकट होने से भगवान बड़े प्रेम से मिलते हैं | परमात्मा की भाँती ही प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है | प्रेम साधन भी है और साधनों का फल [ साध्य ] भी | गूंगे के स्वाद की तरह वह [ प्रेम ] वाणी का विषय नहीं होता |
प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्यप्रेमी ही जानता है | प्रेमियों का प्रेम और ज्ञानियों का आनंद सब जगह है | प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है | भगवान सगुण - साकार की उपासना करनेवालों के लिए प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिए आनंदमय बन जाते हैं | प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण - अत्यंत अलौकिक होता है | यहाँ अद्वेत होते हुए भी द्वेत है और द्वेत होते हुए भी अद्वेत है | जैसे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं , उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं | वैसे ही यहाँ न भेद है और न अभेद | प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद का नित्य ऐक्य - शास्वत संयोग बना रहता है | प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद में भेद नहीं रहता | भक्ति , भक्त और भगवान - सब एक हो जाते हैं |
|| इत्ती ||
SURESH PATIDAR SITHAL