प्राकृतिक सौन्दर्यश्री से घिरा मेवाड, मालवा और गुजरात के बीच का भू-भाग
’वागड‘ कहलाता है। इसका शुद्ध स्वरूप ’वाग्वर‘ है। वागड में डूँगरपुर और
बाँसवाडा जिलों के साथ उदयपुर जिले का छप्पन, मेवल का कुछ भाग और गुजरात
के महीकाँठा व रेवाकाँठा एजेन्सी के कुछ भाग आते थे। डूँगरपुर में
राजधानी स्थापित होने के बाद इस पूरे प्रदेश को ’डूँगरपुर राज्य‘ कहने
लगे। कालान्तर में वागड के सीमावर्ती भाग इससे अलग होते गए। आजकल
डूँगरपुर और बाँसवाडा नामक दो जिले ’वागड‘ के नाम से जाने जाते हैं और
’डूँगरपुर राज्य‘ डूँगरपुर जिले तक सिमट कर रह गया है।
वागड का प्राचीन इतिहास अस्पष्ट है। बारहवीं शताब्दी में परमारों ने वागड
पर शासन किया था। इनकी राजधानी बाँसवाडा जिले में स्थित पुरातत्व की
दृष्टि से विख्यात अर्थुणा नगरी थी। अर्थुणा के निर्बल हो जाने पर वट
पद्रक (इस समय डूँगरपुर जिले की आसपुर तहसील का बडौदा गाँव) और गलियाकोट
के परमार सामन्त स्वतंत्र शासक बन गए। परमार शासक से १११६ ई. पहले
भर्तृपट्ट शाखा के गुहिलवंशी सुरपालदेव नामक ’साऐरासी मलक भोमिये‘ से
मेवाड छोडकर आए आहाडा शाखा के गुहिलवंशी सामन्तसिंह ने ११६९-७० ई. में
बडौदा का राज्य हस्तगत कर लिया। किन्तु गुजरात के चौलुक्य सम्र्राट
भीमदेव (द्वितीय) ने ११८३-८४ ई. में सामन्तसिंह से वागड का राज्य छीन कर
भर्तृपट्ट शाखा के गुहिलवंशी अमृतपाल देव को अपनी ओर से वागड का शासक
बनाया।
सामन्तसिंह के पुत्र जयंसह ने (१२०९-१२१८) खोए हुए पैतृक राज्य का थोडा
सा भू-भाग संघर्ष कर जीत लिया। इनके पुत्र सींहडदेव (१२१८-१२४८ई) ने अपने
पराक्रम से राजधानी बडौदा पर अधिकार कर लिया। इनके पुत्र जयसिंह ने
(१२४८-१२५१ ई.) अर्थुणा को अपने राज्य में मिला लिया। रावल जयंसह या जेसल
के अर्थुणा विजय अभियान में सहयोग देने के लिए मेवाड के रावल जैत्रसिंह
ने तलारक्ष परिवार के मदन को भेजा था, जिसने अपनी वीरता दिखायी थी। इनके
अनुज देवपालदेव ने (१२५१-१२७८ई) परमारों से गलियाकोट छीन लिया। इनके
पुत्र वीरसिंहदेव ने (१२७८-१३०३ ई)डूँगरपुर नगर वाला स्थान और इसके
आस-पास का क्षेत्र अपने नियंत्रण में कर लिया। इसके साथ वागड राज्य का
विस्तार पूरा हो गया। इस नव-विजित क्षेत्र पर प्रभावी नियंत्रण रखने के
लिए रावल वीरसिंहदेव ने अपना प्रतिनिधि यहाँ रखना आवश्यक समझा। उस
प्रतिनिधि और उसके सहयोगियों के रहने के लिए कार्तिक शुक्ला एकादशी,
विक्रम संवत १३३९( १२८२ ई.) के दिन भवन की नींव रखी अर्थात डूँगरपुर नगर
की खूँटी गाडी। यही डूँगरपुर नगर का स्थापना दिवस है। पर राजधानी तो वट
पद्रक(बडौदा) ही रही।
राजधानी बडौदा मैदानी क्षेत्र में थी, समृद्ध थी। इसकी रक्षा के लिए किसी
प्रकार के भौगोलिक अवरोध नहीं थे। दिल्ली तथा मेवाड से मालवा और गुजरात
का मार्ग यहाँ से होकर भी था। इसलिए सेनाएँ आते-जाते इसे लूटती, नष्ट
करती रहती थीं। इस आपदा से उबारने के लिए रावल भचुंड(भूचंड)ने (१३०३-१३३१
ई) १३०८ ई. में अपने पिता द्वारा जीते हुए अधिक सुरक्षित स्थान ’डूँगर नँ
घरँ‘ का नाम १३५८ में डूँगरपुर रखा। विद्वानों ने इस नाम का अनुवाद
गिरिपुर(गिरपुर) कर दिया।
रावल डूँगरसिंह ने वास्तु शास्त्र की पुरातन विधियों के अनुसार गढ के
निर्माण और नगर के विकास-विस्तार के काम आरंभ किए थे। इनके पुत्र रावल
कर्मसिंह ने (१३६२-१३८४ ई) ये काम पूरे करवाए। इनके तीन पुत्र रावल जेयसल
(जयकृष्ण) (१३८४-१३८६ई.), रावल महिपाल (१३८६-१३८ई.) और रावल कान्हड
देव(१३९८-१४०३ ई.) एक के बाद एक डूँगरपुर के शासक बने। रावल कान्हडदेव ने
नगर निवासियों के बीच रहने के लिए कान्हड पोल बनाया, जिसमें आजकल
आयुर्वेदिक चिकित्सालय है। इनके पुत्र रावल प्रतापसिंह या पाता रावल ने
(१४०३-१४२३ ई.) पातेला दरवाजा और पातेला तालाब बनवाए। इनके पुत्र गोपीनाथ
या गैपा रावल ने (१४२३-१४४७ ई.) गैपसागर तालाब, गैप पोल, बादल महल और भाग
महल बनवाए। इनके समय में महाराणा कुंभा ने डूँगरपुर पर आक्रमण किया था।
इनके पुत्र रावल सोमदास (१४४७-१४७९ ई.) मांडू के महमूद शाह और गयासुद्दीन
के आक्रमणों को विफल करने के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने महाराणा रायमल
को मेवाड के सिंहासन पर बैठाने में पूरा सहयोग दिया था।
रावल उदयसिंह (प्रथम) ने (१४९७-१५२७ ई.) रायमल को ईडर की गद्दी पर बैठाने
में महाराणा सांगा का साथ दिया था। इसका बदला लेने के लिए गुजरात के
सुलतान मुजफ्फर शाह ने डूँगरपुर पर चढाई की, लेकिन उसे हार का मुँह देखना
पडा। मुजफ्फर शाह का शाहजादा बहादुर खां, जो बाद में बहादुर शाह के नाम
से गुजरात का सुलतान बना, अपने पिता से बागी होकर डूँगरपुर में आया। रावल
ने उसे डूँगरपुर में शरण दी। जब गुजरात में अव्यवस्था और अराजकता
नियंत्रण में नहीं रही, तब वहां के वजीर ने महाराणा सांगा और मुगल बादशाह
बाबर, दोनों को सहायता देने के लिए पत्र लिखे थे। रावल ने बाबर के नाम
लिखा पत्र, पत्रवाहक से छीनकर उक्त बहादुर खां को सूचित किया क्योंकि वह
उसके आश्रय में रह चुका था। तब बहादुर खाँ बहादुर शाह के नाम से गुजरात
का सुलतान बना। इस बहादुर शाह ने अपना विरोध करने वाले अधिकारियों को दंड
देने के लिए सेना भेजी। विरोधियों ने भाग कर डूँगरपुर में शरण ली। तब
उपकार भूल कर बहादुर शाह ने डूँगरपुर पर चढाई कर दी। रावल उदयसिंह ने
महाराणा सांगा से कंधे से कंधा मिला कर मुगल सल्तनत के संस्थापक बाबर के
विरूद्ध खानवा के मैदान में वीरगति प्राप्त की थी। बाबर ने अपने ’बाबर
नामा‘ में रावल उदयसिंह का प्रमुखता से उल्लेख किया है। रावल उदयसिंह ने
अपने जीवनकाल में अपने राज्य का विभाजन अपने दो पुत्रों, पृथ्वीराज और
जगमाल, के बीच कर दिया था। ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज को डूँगरपुर और जगमाल
को माही नदी के पूर्व का भाग बाँसवाडा दिया था।
रावल पृथ्वीराज (१५२७-१५४८ई) के राज्यकाल में दो प्रमुख घटनाएं घटीं-
बाँसवाडा को स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता देना और मेवाड के बालक
महाराणा उदयसिंह को डूँगरपुर में कुछ दिन रखना।
इनके पुत्र रावल आसकरण ने (१५४८-१५८० ई) बेणेश्वर टापू पर शिवालय बनवाया,
अपने नाम से आसपुर गाँव बसाया, डूँगरपुर में द्वारिकाधीश का मन्दिर
बनवाया और कई तुलादान किए। रावल आसकरण हाजी खां के साथ ही लडाई में
महाराणा उदयसिंह के पक्ष में लडे थे। इनका बाँसवाडा के रावल प्रतापसिंह
से भी माही तट पर युद्ध हुआ था। इन्होंने कुँवर मानसिंह कछवाहा के
सेनापतित्व में आई मुगल बादशाह अकबर की सेना से बीलपण के बीडे में युद्ध
किया था। वे हारे थे, पर उन्होंने उस समय अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की
थी। बाद में आमेर के राजा भगवानदास कछवाहा के आग्रह करने पर बाँसवाडा में
अधीनता स्वीकार की जहां उनका ’गाडी कायदे से स्वागत‘ किया गया था। वे
बादशाह की ओर से कहीं लडने नहीं गए थे तथा डूँगरपुर में ’गैर अमली‘ इलाका
ही रहा था। फिर भी महाराणा प्रताप ने डूँगरपुर पर आक्रमण किया था। रावल
आसकरण ने मालवा के श्ुाजाअत खां को शरण दी थी। इन्होंने मारवाड के राव
चन्द्रसेन को भी शरण दी थी। बाज बहादुर और चन्द्रसेन के पीछे बादशाह अकबर
की सेनाएँ पडी हुई थीं।
रावल पुंजराज के शासन काल में(१६०९-१६५७ ई) मेवाड के महाराणा जगतसिंह ने
डूँगरपुर पर सेना भेजी थी। इस सेना ने खूब लूटपाट की, चन्दन का झरोखा
नष्ट कर दिया, पर रावल ने अधीनता स्वीकार नहीं की और उन्होंने मुगल
बादशाह शाहजहाँ से सम्बन्ध स्थापित किए तथा बादशाह की ओर से लडने के लिए
दक्षिण में गए। इन्हें डेढ हजारी जात और डेढ हजार सवारों का मन्सब दिया
गया था, ’माही मरातिब‘ से भी अलंकृत किया गया था। इन्होंने गैप सागर की
पाल पर भव्य और विशाल श्री गोवर्द्धननाथ का मन्दिर बनवाया, पुंजपुर नामक
गाँव बसाया और पुंजेला तालाब बनवाया। इनके पुत्र रावल गिरधरदास(१६५७-१६६१
ई) पर महाराणा राजसिंह ने सेना भेजी, पर रावल ने सुलह कर ली।
रावल जसवन्तसिंह(प्रथम) के (१६६१-१६९१ ई) मेवाड से मधुर सम्बन्ध रहे।
उन्होंने राजसमुद्र की प्रतिष्ठा के उत्सव में भाग लिया था। मुगल बादशाह
औरंगजेब के समय की लडाइयों में महाराणा राजसिंह के पक्ष में लडे थे।
इन्होंने औरंगजेब के बागी पुत्र अकबर को शरण दी थी। इनके पुत्र रावल
खुमाणसिंह(१६९१-१७०२ ई) पर महाराणा अमरसिंह (द्वितीय) ने सेना भेजी, सोम
नदी पर लडाई हुई, देवगढ की मध्यस्थता से समझौता हुआ।
रावल रामसिंह ने (१७०२-१७३० ई) मेवाड के बार-बार के आक्रमणों से होने
वाली क्षति पर विराम लगाने के लिए मुगल बादशाह औरंगजेब से सम्बन्ध बनाए।
उधर महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने भी बदली हुई परिस्थिति में
डूँगरपुर से अच्छे सम्बन्ध रखने का रचनात्मक उपाय किया। उन्होंने रावल
रामसिंह को वैद्यनाथ शिवालय के प्रतिष्ठा समारोह में आमंत्रित किया,
मादडी गाँव तक आकर अगवानी की। बाद में महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) ने
दिल्ली के बादशाह से डूँगरपुर और बाँसवाडा का फरमान अपने नाम करवा लिया
और अपने मंत्री पंचोली बिहारीदास को इसे अमली जामा पहनाने के लिए सेना के
साथ डूँगरपुर पर भेजा। रावल रामसिंह और सरदारों ने आपस में लडकर अपनी
शक्ति क्षीण करना अच्छा नहीं समझा और सेना व्यय के रुपए देकर समझौता कर
लिया। ये कुशल और दूरदर्शी शासक थे। इन्होंने पेशवा से समझौता कर राज्य
में शान्ति और व्यवस्था स्थापित की। इन्होंने अपने सुदृढ और प्रभावशाली
प्रशासन से सब प्रकार के विद्रोह दबा दिए, अपराधों को नियंत्रित किया,
चोरों के कारण बन्द मालवा का मार्ग फिर खुलवाया।
रावल शिवसिंह ने (१७३०-१७८५ ई) अपने पिता की उपलब्धियों का पूरा लाभ
उठाया। उन्होंने बाजीराव पेशवा और मल्हार राव होल्कर को सन्तुष्ट रखा।
इन्होंने मेवाड के महाराणाओं से भी अच्छे सम्बन्ध रखे। सन् १७८४ ई में
महाराणा भीमसिंह विवाह करने ईडर गए, लौटते समय वे डूँगरपुर क अतिथि हुए।
उस समय उन्होंने कहा था कि डूँगरपुर पाटवी घराना है, इसलिए उदयपुर की तरह
डूँगरपुर में भी त्रिपोलिया दरवाजे पर छत्रियाँ बनवाईं। इनके शासनकाल में
डूँगरपुर की सर्वांगीण उन्नति हुई। इनके शासनकाल को डूँगरपुर के इतिहास
का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।
रावल फतहसिंह (१७९०-१८०८ ई) का शासनकाल बाहरी आक्रमणों और आन्तरिक
विद्रोहों से अशान्त रहा। इनके पुत्र रावल जसवन्तसिंह (द्वितीय)
(१८०८-१८४५ई) को अराजक स्थिति, खाली खजाना, कुचक्र और षडयंत्र विरासत में
मिले थे। सिन्धियों के आक्रमण कोढ में खाज सिद्ध हुए। इन्होंने सन् १८१८
ई. में अंग्रेजों से मैत्री, मेल-जोल तथा पारस्परिक सहयोग की सन्धि की।
सन् १८२५ ई में प्रतापगढ के दलपतसिंह गोद लिए गए एवं रावल से सारे
शासनाधिकार ले कर दलपतसिंह को सौंप दिए। इन्हें सन् १८४५ ई को वृन्दावन
भेजा गया जहाँ ३ जनवरी, १८४६ के दिन उनका स्वर्गवास हुआ।
महारावल उदयसिंह (द्वितीय)ठिकाना साबली से गोद लिए गए थे। उन्हें २८
सितम्बर, १८४६ को डूँगरपुर के राज्य सिंहासन पर बैठाया। आम जनता की भलाई
के लिए कई कदम उठाए। इन्होंने कन्या वध, सती प्रथा बन्द करने जैसे सुधार
लागू किए। इन्होंने नियमित अदालतें स्थापित कीं, डूँगरपुर में सराय,
अस्पताल, नगरपालिका, आधुनिक शिक्षा प्रणाली का स्कूल स्थापित किया, पहली
जनगणना शान्तिपूर्वक करवाई। बेणेश्वर का मेला पुनः लगवाना शुरू कर उसे
जारी रखा। इनको डूँगरपुर म आधुनिकता का सूत्रपात करने वाला कहा जा सकता
है। इनके द्वारा शुरू किए गए कार्यों को उनके पौत्र महारावल विजयसिंह ने
(१८९८-१९१८ ई) ने आगे बढाया। इन्होंने प्रशासन को व्यवस्थित किया। पुलिस,
सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और वन विभाग का पुनर्गठन किया, राजस्व की
दृष्टि से गांवों का बन्दोबस्त करवाया, उच्च शिक्षा को प्रोत्साहन दिया,
कन्या शिक्षा के लिए अलग पाठशाला खोली, व्यापार की सुविधा के लिए बैंक
खोली। एडवर्ड समन्द बँधवाया जिसे डूँगरपुर नगर के निवासियों को जलापूर्ति
की जाती है। अपने शासन को जवाबदेह बनाने के लिए ’राजप्रबन्धकारणी सभा‘ और
दीवानी फौजदारी के मुकदमों की अपीलें सुनने व कानून बनाने के लिए
’राज-शासन-सभा‘ गठित की। जेल का नया भवन बना कर कैदियों को काम सिखाने की
व्यवस्था की।
महारावल लक्ष्मणसिंह गुहिलोत आहाडा वंश के डूँगरपुर के तैंतीसवें और
अन्तिम शासक हुए। ये १५ नवम्बर, १९१८ को डूँगरपुर की राजगद्दी पर बैठे और
राजस्थान संघ में ३० अप्रैल, १९४८ ई को ë



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